उत्तराखंड

अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज में ‘भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा प्रकोष्ठ’ का किया गया गठन

शिक्षा ही नहीं, विद्या भी आवश्यक: डॉ चिन्मय पण्ड्या

कलयुग दर्शन (24×7)

नरेश कुमार मित्तल (संवाददाता)

हरिद्वार। विश्व शांति के लिए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, बड़े-बड़े शिक्षाशास्त्री, मूर्धन्य विचारक, राजनीतिज्ञ, धर्म नेता आदि सभी अपने-अपने ढंग से प्रयासरत हैं। कोई शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव की बात कहता है, कोई निरस्त्रीकरण की, तो कोई सत्ता के परिवर्तन पर जोर देता है, पर वास्तकिता इससे अलग है। आंतरिक शांति के बिना बाहरी उपायों से शांति की कल्पना करना निरर्थक है। इस विषय में शिक्षा शास्त्री के.जी. सैयदन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘जब तक मानव हृदय में शांति नहीं है, हमारी शिक्षित वृत्तियों और आदर्शों के बीच शांति नहीं है, तब तक विश्व में पूर्ण शांति की कल्पना करना निरर्थक है। इसके लिए हमें मनुष्य के शैक्षिक-बौद्धिक उत्थान के साथ-साथ उसके नैतिक एवं चारित्रिक गुणों के सर्वांगीण विकास के लिए हर संभव उपाय, उपचार अपनाने होंगे। स्थायी सुख-शांति की स्थापना तभी होगी। विवेक को जगाने वाली विद्या न रही, तो मनुष्य का पतन होना स्वाभाविक है। मनुष्य के भीतर कुसंस्कार है, उसे दूर करने का एक मात्र उपाय विद्या की प्रवीणता ही है। जब तक जीवन की दिशा सात्विक नहीं होती, गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठ तत्त्वों का समावेश नहीं होता, व्यक्ति की जड़ता और पशुता तक तक दूर नहीं हो सकती है। प्रगति, शांति और सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि मनुष्य को बचपन से ही नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाया जाय, अन्यथा आगामी जिम्मेदारियों को संभालने वाले भावी कर्णधारों की यदि नींव ही कमजोर रही, तो फिर योजनाएँ कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, उन्हें चलाने वाले यदि उपयुक्त स्तर के न हुए, तो उसकी सफलता की कल्पना निरर्थक होगी।

इस क्षेत्र में कार्य करते हुए अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज में ‘भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा प्रकोष्ठ’ का गठन किया गया है। यह प्रकोष्ठ देश भर के प्राथमिक, माध्यमिक, हाई स्कूल स्तर के विद्यार्थियों के लिए भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा के माध्यम से उनमें श्रेष्ठता की ओर रुझान को बढ़ावा दे रहा है। इस दिशा में बढ़ रहे लोगों की रुझान को देखते हुए शांतिकुंज ने देश-विदेश में फैले अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं के माध्यम से स्कूलों में जाकर बच्चों को भारतीय संस्कृति के विषय में विशेष जानकारियाँ देने का क्रम विगत तीन दशक से कर रहा है। अब तक इसमें म.प्र., छत्तीसगढ़, उ.प्र., उत्तरांचल, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश बंगाल सहित देश के ख्0 राज्यों के करोड़ों विद्यार्थियों ने भागीदारी की है। अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी के अनुसार शिक्षा वस्तुतः वह है जो व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का स्वरूप एवं समाधान सुझाये, पर आधुनिक शिक्षा का स्वरूप बहुत कुछ बदल गया है। उसमें नैतिक-शिक्षण और चरित्र निर्माण के लिए स्थान नहीं है, कोरी बौद्धिक उन्नति की ओर ही प्रयत्न है। विद्यार्थियों में चरित्र-बल, कर्मशक्ति, आशा, विश्वास, उत्साह, पौरुष, संयम और सात्विकता को जागरूक करने की महती आवश्यकता है।

डॉ. पण्ड्या के अनुसार जिस विद्या में कर्त्तव्यपरायणता की प्रेरणा मिलती हो, स्वतंत्र रूप से विचार करने की बुद्धि आती हो, परिस्थितियों से लड़ने की शक्ति आती हो, ऐसी विद्या ही अगणित समस्याओं के ही निराकरण में समर्थ हो सकती है। आज चहुँ ओर शिक्षा की ऐसी प्रचलन है, प्रतिवर्ष हजारों-लाखों विद्यार्थी ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेकर निकलते तो हैं, पर उनमें छल-कपट, दुश्चरित्रता, फैशनपरस्ती, विलासिता, द्वेष और अहंकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता। ऐसे व्यक्ति जब महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन होते हैं, तो देश, समाज व संस्कृति को ऊँचा उठाने की बजाय अपनी करतूतों से उसे कलंकित ही करते हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति युवा आइकान डॉ चिन्मय पण्ड्या बताते हैं कि विद्या का उद्देश्य सुन्दर चरित्र निर्माण है। चरित्र का निर्माण आदतों और आदर्शों पर निर्भर करता है और उसके आधार पर व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति का विकास संभव है। व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता (विद्या) का विकास कर अपने को आदर्श रूप से ढाले और अपना चरित्र निर्माण कर व्यक्तित्व का विकास करे, तो जीवन सुख-शांतिमय बन सकता है और ऐसा ही जीवन उत्तम माना जाता है। प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य अपने कर्त्तव्य का पालन करें, वही सर्वोत्कृष्ट अच्छाई मानी जाती है और यह कार्य मात्र प्रचलित शिक्षा से नहीं, वरन् उसके साथ विद्या के समन्वय से ही संभव हो सकता है।

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