उत्तराखंड

हरिद्वार स्थित शांतिकुंज द्वारा संचालित ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की अनुपम अनुसंधान प्रक्रिया

कलयुग दर्शन (24×7)

मो. नदीम (संपादक)

हरिद्वार। आध्यात्मिक उपचारों से शरीर, मन व अंतः करण किस प्रकार प्रभावित होता है तथा इन प्रभावों का मापन किस रीति से संभव है, हरिद्वार स्थित शांतिकुंज द्वारा संचालित ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने प्राचीनतम भारतीय संस्कृति के निर्धारणों को आधार बनाकर इसे अपने शोध का विषय बनाने का प्रयास किया है। इस शोध संस्थान की स्थापना गायत्री परिवार के जनक वेदमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने 1979 में की थी। विभिन्न उपचार जो भिन्न-भिन्न रूपों में सूक्ष्म शरीर संरचना को प्रभावित करते हैं, अपनी क्षमता की दृष्टि से विलक्षण हैं। गायत्री परिवार के जनक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने इसे आध्यात्मिक सेनीटोरियम की संज्ञा दी है। इसे अगर व्यक्तित्व की रसायनशाला कहें, तो अतिशयोक्ति न होगी। शोध के व्यवस्था क्रम में जप, ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि विभिन्न आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के प्रभावों के परीक्षण हेतु नयी एक्सपेरिमेन्टल डिजाइनों, परीक्षण तकनीकों का शोध किया गया है। इस तत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण यहाँ के माध्यम से होन वाले ईसीजी, ईएमजी, बायोफीड बैक, एक्सापायरोग्राफ, मेडस्पायरर, जैव रसायन, हार्ट बिटका, न्यूरोलाजी, इलेक्ट्रो एनसेफ्लोके, इलेक्ट्रो, जीएसआर आदि के सरंजाम को देखकर चकित हो जाते हैं।

इस संबंध में किए जा रहे शोध के बारे में जानने योग्य तथ्य यह है कि प्रथम चरण में अपने विषयों के निष्णात शोध वैज्ञानिकों द्वारा शिविर में आए व्यक्तियों के व्यक्तित्व का गहराई से परीक्षण किया जाता है। इसके परिणाम के अनुसार उन्हें विभिन्न वर्गों में वनौषधि कल्प, ध्यान आदि बताये जाते हैं। यह प्रयोग वैज्ञानिकों की देखरेख में ब्रह्मवर्चस, शांतिकुंज परिसर में ही होती है। साधना की प्रक्रिया जहाँ ऋषियों के बताये गये योग शास्त्रों से ली जाती है। वहीं परीक्षण के आधुनिकतम बहुमूल्य यंत्रों की व्यवस्था भी है। उपर्युक्त सभी परीक्षण ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के निदेशक डॉ. प्रणव पण्ड्या के कुशल निर्देशन में स्थापना काल से सतत चल रहा है। मंत्र शक्ति, ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि के विस्मयकारी प्रभाव साधना सत्र में आने वाले व्यक्तियों पर देखे गये हैं। कुण्ठा, अवसाद, दैन्य, दुर्बलता से ग्रसित व्यक्ति जहाँ स्वयं में प्रचण्ड आत्मबल की अनुभूति करते हैं, वहीं कई वर्षों पुराने शारीरिक रोगों से भी छुटकारा मिला है। इससे स्पष्ट होता है कि रोग का वास्तविक कारण कहीं गहराइयों में छिपा है। इन साधना प्रयोगों में स्वस्थ व्यक्तियों (साधकों) ने स्वयं नई क्षमता तथा अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ भी हासिल की हैं।

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